भारतीय कृषि पद्धति : तकनीक का अर्थ नहीं है मशीनीकरण
इतिहास बताता है कि भारत ने ही दुनिया को खेती सिखाई। हजारों लाखों वर्षों से हम खेती करते आ रहे हैं। कहा तो यहाँ तक जाता है कि भारतीय जीवन-पद्धति ही खेती आधारित है। स्वाभाविक ही है कि भारत की खेती की परंपरा काफी उन्नत और श्रेष्ठ होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश स्वाधीनता के बाद से ही अपने देश में हरेक बात में यूरोप के अंधानुकरण की परंपरा डाल दी गई। इसलिए यूरोपीय विज्ञान को ही विज्ञान मानने वालों ने भारतीय खेती को पिछड़ा मानते हुए इसे उन्नत बनाने की कोशिशें प्रारंभ कर दीं। उनकी कोशिशों का ही परिणाम है कि आज यदि खेती में उन्नत तकनीक की बात करें तो ट्रैक्टरों, ट्यूबवेलों और रासायनिक खादों व कीटनाशकों का चित्र दिमाग में उभरता है। खेती में उन्नत तकनीक के प्रयोग का आज एकमात्र अर्थ रह गया है खेती का मशीनीकरण व रासायनीकरण करना। चूंकि भारतीय पद्धति में मशीनों और रसायनों का न्यूनतम प्रयोग था, इसलिए उसे पिछड़ा मान लिया गया।
विचार किया जाए तो तकनीक का अर्थ मशीन नहीं होता है। तकनीक बिना मशीन के भी हो सकती है। तकनीक के इस पक्ष को ध्यान में रखें तो ध्यान में आता है कि हमने खेती की तकनीक को उन्नत बनाने के न्यूनतम प्रयास किए हैं। या फिर जो प्रयास किए गए हैं, वे जमीन तक किसानों के पास नहीं पहुंचाए गए हैं। तकनीक का पहला लक्ष्य होता है कार्य को सरल और लाभकारी बनाना। ट्रैक्टरों और रासायनिक खादों ने कृषि को जटिल, खर्चीला और घाटे का सौदा बना दिया है। हो सकता है कि अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में जहां कि जमीन बहुतायत में उपलब्ध है और जहां मौसम केवल दो होते हैं, ये कुछ लाभकारी साबित हुए हों, परंतु भारत में इन्होंने खेती और किसानों का विनाश ही किया है। रासायनिक खादों के कारण पंजाब जैसे उपजाऊ प्रदेश की उत्पादकता में बड़े पैमाने में ह्रास आया है। नवीनतम शोध बताते हैं कि डीएपी और यूरिया जैसे रासायनिक खादों का केवल 25-30 प्रतिशत भाग ही पौधों के काम आता है, शेष 70-75 प्रतिशत वहीं जमीन में अनुपयोगी रूप में पड़ा रहता है। खेतों में प्रत्येक वर्ष डीएपी डालते रहने से उसमें इस अनुपयोगी हिस्से की मात्रा बढ़ती रहती है और यह खेत की मिट्टी को सख्त बनाता रहता है। परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में खेत की मिट्टी इतनी सख्त हो जाती है कि उसमें पानी अंदर नहीं रिस पाता और पानी नहीं टिक पाने के कारण दिनों दिन उसमें कार्बनिक पदार्थ भी घटने लगते हैं। इससे मिट्टी की उत्पादकता घटने लगती है।
देश में रासायनिक खादों की खपत के आंकड़ें यदि देखें तो पता चलता है कि वर्षानुवर्ष प्रति हेक्टेयर इसमें बढ़ोत्तरी होती जा रही है। यह बात तो एक सामान्य किसान भी बता देता है कि प्रत्येक वर्ष यूरिया व डीएपी की मात्रा बढ़ानी होती है अन्यथा खेतों की उत्पादकता घटने लगती है। साथ ही खेतों को सामान्य से अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। यह अतिरिक्त पानी वर्षा से तो नहीं मिल सकता। इसके लिए ट्यूबवेल और ट्यूबवेल के लिए बिजली की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार जो खेती पहले बिना किसी पूंजी के सरलता से हो जाती थी, अब काफी खर्चीली और मंहगी होती जा रही है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने एक भाषण में कहा कि किसानों की लागत का एक बड़ा हिस्सा पानी पर खर्च होता है। पानी की लागत बुनियादी तौर पर बिजली की लागत के कारण है। सरकारें चाहे जितने कम दर में बिजली दें, वह भी किसानों की लागत तो बढ़ाती हैं। ट्यूबवेल लगवाने और उसके रख-रखाव का खर्च तो अलग से है ही।
रासायनिक खादों विशेषकर यूरिया का एक बड़ा दुष्प्रभाव खेतों में उपस्थित और खेती के मित्र सूक्ष्म कीटों पर पड़ता है। यूरिया उनके लिए विष का काम करता है और यूरिया तथा उसके कारण उत्पन्न शुष्कता का मिश्रित परिणाम यह होता है कि खेतों में से केंचुएं और माइक्रो ऑर्गेनिज्म यानी कि सूक्ष्म कीटाणु समाप्त हो जाते हैं। ये माइक्रो ऑर्गेनिज्म ही जमीन में विभिन्न पोषक पदार्थ पौधों को उपलब्ध कराते हैं जो यूरिया व डीएपी नहीं करा सकते। साथ ही केंचुओं के समाप्त हो जाने से जमीन की स्वाभाविक उर्वरता भी समाप्त हो जाती है।
रासायनिक खादों विशेषकर यूरिया की एक और समस्या है जिस ओर सरकार का ध्यान नहीं गया है। यूरिया शुद्ध रूप से नाइट्रोजन है। खेतों में यूरिया के प्रयोग से पौधों को उनकी आवश्यकता से अधिक नाइट्रोजन मिल जाता है। पौधों में पहुंचा यह अतिरिक्त नाइट्रोजन कीटों को आकर्षित करता है। इस प्रकार फसल तो अधिक होती है परंतु वह कीटों के चपेट में आ जाती है। फसल को कीटों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। रासायनिक कीटनाशक भी खेती की लागत को अच्छा-खासा बढ़ा देते हैं। साथ ही इन कीटनाशकों के जहरीलेपन के कारण उत्पादित फसल भी मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाती है। पंजाब में इसका दुष्प्रभाव साफ देखा जा सकता है जहां कैंसर जैसी घातक बीमारी काफी बड़े पैमाने पर फैल गई है।
इस प्रकार यदि पूरा अर्थशास्त्र देखा जाए और किसान द्वारा किया जाने वाला व्यय तथा सरकार द्वारा दिए जाने वाले अनुदानों व कर्जमाफी को जोड़ा जाए तो आधुनिक कृषि तकनीकें एक बहुत ही मंहगा सौदा साबित होंगी। लगभग लाख करोड़ रूपयों का तो केवल खादों पर अनुदान दिया जा रहा है। बिजली पर अनुदान, ट्रैक्टरों व ट्यूबवेलों पर अनुदान आदि को जोड़ लिया जाए तो यह राशि खतरनाक रूप से बड़ी हो जाएगी। इतनी मंहगी कीमतों पर हमें जो प्राप्त हो रहा है, वह फसल भी मानव स्वास्थ्य के लिए लाभकारी नहीं होती। इसलिए यदि हम इसमें स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान और उस पर होने वाले खर्च को जोड़ें तो यह राशि आकाश छूने लगेगी। इसके अलावा जो किसान देश का अन्नदाता हुआ करता था, वह अब कर्ज में डूब कर आत्महत्या करने को विवश है या फिर सरकार की दया पर जीवनयापन करने को मजबूर। अंग्रेजों के देश में आने और लूट मचाने से पहले यही किसान राज्यों की आय के प्रमुख स्रोत हुआ करते थे। अंग्रेजों ने इन्हें लूट-लूट कर ही इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति कर ली। परंतु समृद्धि के प्रतीक वही किसान आज सर्वाधिक दयनीय हालत में हैं और खेती सबसे अधिक घाटे का व्यवसाय बनती जा रही है। यह सब कुछ हुआ है तकनीक का गलत अर्थ निकाले जाने के कारण।
तो क्या हम यह मान लें कि खेती में हमें तकनीक की कोई आवश्यकता ही नहीं है? क्या खेती को आदिम काल के पिछड़े तरीकों से ही करना होगा? तो फिर खेती की उत्पादकता कैसे बढ़ेगी? कैसे पूरे देश का पेट भरा जाएगा? कहां से आएगा इतना अनाज, यदि हम रासायनिक खादों, ट्रैक्टरों, ट्यूबवेलों, हाइब्रिड बीजों आदि की उन्नत तकनीक को अलविदा कह देंगे? क्या हम फिर से देश में भुखमरी लाना चाहते हैं? इन सवालों का उत्तर हमें मिल सकता है यदि हम थोड़ा सा इतिहास का अध्ययन कर लें। यह एक इतिहास है कि देश में अंग्रेजों के आने से पहले अकाल का कोई खास विवरण नहीं पाया जाता। मुसलमानों के आने से पहले तो अकाल का विवरण सैंकड़ों-हजारों सालों में कोई एकाध बार मिलता है। फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि अंग्रेजों के आने के मात्र पचास-सौ वर्षों में ही देश में कई बड़े अकाल पड़ गए?
यह हुआ तो था अंग्रेजों द्वारा मचाए गए लूट के कारण परंतु अंग्रेजों ने इसका बहाना बना कर कृषि अनुसंधान की शुरूआत की। इस कृषि अनुसंधान का उनका उद्देश्य कृषि का विकास तो कतई नहीं था इसलिए उनका कृषि विभाग शुरूआती वर्षों में केवल लैंड रिकॉर्ड बनाने में व्यस्त रहा। आखिर उन्हें उससे राजस्व जो वसूलना था।
बाद में अंग्रेजों ने खेती की दशा सुधारने पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए डा. जॉन अगस्टस वोल्कर को लगा दिया गया। वोल्कर की रिपोर्ट आज उपलब्ध है। उस रिपोर्ट में भारतीय कृषि की तत्कालीन उन्नत दशा का पता चलता है। उदाहरण के लिए वर्ष 1832 में अंग्रेज कृषि विशेषज्ञों ने स्वीकार किया था कि भारतीय कृषि में बहुत सुधार की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने कहा कि उदाहरण के लिए चावल की खेती में आने वाले हजार वर्षों में भी हमें शायद ही कोई विकास करने की आवश्यकता पड़े। वोल्कर ने अपनी रिपोर्ट में कृषि उत्पादन का जो विवरण दिया है, वह कहीं से भी कमजोर नहीं कहा जा सकता। देश में सिंचाई की परंपरागत व्यवस्था पर भी इस रिपोर्ट में खासा प्रकाश डाला गया है। वोल्कर का सुझाव था कि सरकार सिंचाई के परंपरागत स्रोतों की देख-रेख में व्यय करे। किसानों को खाद के समुचित उपयोग करने के बारे में प्रशिक्षित करे। इतने से ही कृषि में काफी सुधार हो जाएगा। उल्लेखनीय बात है कि उस समय रासायनिक खादों का आविष्कार नहीं हुआ था।
बहरहाल, वोल्कर की रिपोर्ट से हमें भारतीय कृषि की स्थिति का पता चलता है। साथ ही अन्य इतिहासकारों ने भी भारतीय किसानों द्वारा प्रयोग की जाने वाल कृषि तकनीकों का वर्णन किया है। सेंटर फॉर पालिसी स्टडीज, नई दिल्ली के निदेशक डा. जितेंद्र बजाज बताते हैं कि अकबर के काल में किसानों को नमक पानी से बीजोपचार करने की विधि पता थी और वे उसका प्रयोग भी किया करते थे। खेतों में कम्पोस्ट खाद डालने की विधि तो बहुप्रचलित थी ही। इतिहास के इन तथ्यों के आलोक में हम भारतीय कृषि के लिए आधुनिक तकनीकों का खुलासा कर सकते हैं। ये तकनीकें न केवल नि:शुल्क हैं, बल्कि ये बिना किसी अतिरिक्त लागत के कृषि की उत्पादकता बढ़ाती हैं और फसल की उच्च गुणवत्ता भी सुनिश्चित करती हैं।
पहली तकनीक है बीजोपचार। नमकीन पानी और गोमूत्र से बीजोपचार करना परंपरागत तकनीक रही है। आज इसके लिए ट्राइकोडर्मा वृडी जैसे और भी कई जैविक उपाय आ गए हैं। इनसे बीजों का उपचार करने के बाद बुवाई करने से फसल में कीट लगने की संभावना घट जाती है। बीजोपचार से बीजों की रोग व कीट प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। दुर्भाग्यवश आज के किसान बीजोपचार से अधिक परिचित नहीं हैं। इसके लिए केवल किसानों को उनकी परंपरागत तकनीक को स्मरण कराने की आवश्यकता है। साथ ही आधुनिक उपायों की जानकारी भी दिया जाना लाभदायक है।
उन्नत कृषि तकनीकों में दूसरी तकनीक है कम्पोस्ट बनाने की। गोपालकों का देश होने के कारण देश में गोबर का कम्पोस्ट बनाने की विधि काफी पहले समय से प्रचलित रही है। रासायनिक खेती के प्रचलन के कारण देश में उसका ज्ञान घटा है। आज किसान गोबर को जमा करके बिना कम्पोस्ट बनाए खेतों में डाल देते हैं। इसमें गोबर कच्चा रह जाता है और इसके कारण खेतों में दीमक लगने की समस्या बढ़ जाती है। हैरत की बात यह है कि कम्पोस्ट बनाने की इंदौर पद्धति के जनक और दुनिया में जैविक खेती की शुरूआत करने वाले अल्फ्रेड हावर्ड ने भारत में ही यह तकनीक सीखी और विकसित की थी। आज कम्पोस्टिंग की उस विधि का काफी विस्तार हो गया है। रासायनिक खादों पर अनुदान में दिए जाने वाले पैसे से सरकार किसानों को इन तकनीकों का प्रशिक्षण दे सकती है। इन तकनीकों में किसान को लागत कुछ भी नहीं लगती है और उसके खेतों की उर्वरता व उत्पादकता दोनों ही बढ़ती है। अमरावती, महाराष्ट्र के सुभाष पालेकर ने कम्पोस्टिंग से आगे बढ़ते हुए जीवामृत और बीजामृत के प्रयोग द्वारा शून्य लागत खेती का अनुसंधान किया है। यह काफी सफल रहा है। उनकी तकनीक का उपयोग कर महाराष्ट्र, कर्नाटक व अन्य कई राज्यों के हजारों किसान अपने खेतों की पैदावार बिना किसी रसायनों और अतिरिक्त लागत के बढ़ाने में सफल हो रहे हैं।
उन्नत कृषि तकनीक का तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है बैलों की क्षमता बढाना। लंबे समय से बैल खेतों की जुताई और अन्यान्य कृषि कार्यों में योगदान करते रहे हैं। चाहे सिंचाई के लिए रहट से पानी निकालना हो या फिर कटाई उपरांत फसल का प्रसंस्करण, बैल किसानों के बड़े दोस्त रहे हैं। बैलों के उपयोग में एक बड़ा फायदा यह भी है कि इनका रखरखाव किसान स्वयं कर लेते हैं और इनका उपयोग सरल है। कमी केवल क्षमता की है। इसलिए आवश्यकता इनकी क्षमता बढ़ाने की थी। परंतु कृषि वैज्ञानिकों ने बैलों की क्षमता बढ़ाने की बजाय उनका उपयोग समाप्त करने पर जोर दिया। इससे किसानों की बाजार पर निर्भरता बढ़ी और खेती मंहगी भी हो गई।
बहरहाल, देश में बैलों की क्षमता संवर्धन पर भी कुछ काम हुआ है। उदाहरण के लिए कृषि इंजीनियरिंग संस्थान, भोपाल में जुताई के लिए दो पहियों का एक बैलचालित ट्रैक्टर विकसित किया गया है। वहां बैलों द्वारा चालित अनेक और भी यंत्र विकसित किए गए हैं जिनका खेती के अन्यान्य कार्यों में उपयोग किया जा सकता है। कानपुर के विवेक चतुर्वेदी जैसे अनेक किसान बैलचालित यंत्रों के और भी कई प्रयोग कर रहे हैं। इन यंत्रों की सहायता से बैलों की क्षमता कई गुना बढ़ाई जा सकती है। आवश्यकता है इनका व्यावहारिक प्रयोग बढ़ाए जाने की।
खेती में बीजों का महत्वपूर्ण योगदान है। हाइब्रिड व जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) बीज आधुनिक कृषि तकनीक का एक बड़ा आयाम हैं। परंतु इन बीजों के दुष्परिणामों पर या तो कहीं शोध नहीं हुआ है या फिर यदि कहीं शोध हुआ है तो उसे छिपाने-दबाने की पुरजोर कोशिशें की गई हैं। उदाहरण के लिए कपास में स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले कीटनिरोधक गॉसिपाल की मात्रा को बीटी कॉटन में काफी बढ़ा दिया गया। इससे कपास की फसल तो अच्छी हो जाती है परंतु उसके बिनौले की खली और तेल दोनों ही जहरीले हो गए। उस खली को खाने से पशु और तेल को खाने से मनुष्य बीमार पडऩे लगे। कपास की खली गाय-भैंस आदि पशुओं के लिए काफी फायदेमंद मानी जाती रही है। परंतु बीटी कॉटन की खली जहरीली होने के कारण पशुओं को नहीं खिलाई जा सकती। इसके अलावा संकर बीज हैं जो उपज तो अच्छी देते हैं, परंतु वे भी किसानों को बाजार पर निर्भर बनाते हैं। संकर बीजों की फसल से अगली फसल के लिए बीज नहीं बनाए जा सकते। वे हर बार खरीदने पड़ते हैं। इसकी बजाय यदि देसी बीजों को उपयोग में लाया जाए तो वे न केवल हर बार उपजाए जा सकते हैं, बल्कि उनका प्रबंधन भी कम खर्चीला होता है।
एक और कृषि तकनीक है फसल चक्र। अमेरिका और यूरोप में मौसम के कारण वर्ष में केवल कुछ महीने ही खेती हो पाती है और दो फसलें ही ली जा सकती हैं। परंतु भारत में बारह में से दस महीने खेती हो सकती है और तीन-तीन फसलें आराम से ली जाती हैं। इसलिए प्राचीन काल से भारत में फसल चक्र का पालन किया जाता था। फसल चक्र का अर्थ होता है एक फसल के बाद दूसरी ऐसी फसल लेना जिससे पहली फसल द्वारा जमीन से लिए गए पोषक पदार्थों की पूर्ति हो जाए। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि हरेक फसल जमीन से कुछ पोषक पदार्थ लेती है और कुछ छोड़ती है। उदाहरण के लिए दलहन की फसलें खेतों में नाइट्रोजन पैदा कर देती हैं। इसलिए यदि वर्ष में एक बार दलहन की एक फसल ले ली जाए तो वर्ष भर के लिए खेतों में नाइट्रोजन की आवश्यकता पूरी हो जाती है।
एक ही प्रकार की फसल यदि बार बार ली जाए तो इससे मिट्टी में से पोषक पदार्थों की कमी हो जाएगी और उत्पादन घटने लगेगा। फसल चक्र उत्पादन को बढ़ाने में सहायक है। फसल चक्र की ही तरह इंटर क्रोपिंग भी है यानी कि एक फसल के साथ दूसरी फसल भी लगाना। उदाहरण के लिए अरहर की फसल के साथ यदि बीच-बीच में सरसों भी बो दी जाए तो दोनों ही फसलें अच्छी होती हैं। इसी प्रकार अन्य फसलों के साथ भी कुछ खास फसलों को बोया जाता है। इससे दोनों ही फसलों का उत्पादन बढ़ जाता है।
इस प्रकार हम देखें तो खेती में तकनीक के प्रयोग का अर्थ केवल मशीनीकरण या रासायनीकरण नहीं है। मशीनों और रसायनों के बिना भी खेती में उन्नत तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है और उपज बढ़ाई जा सकती है। आवश्यकता है तो इसके व्यवस्थित प्रशिक्षण की।
✍🏻साभार: श्रीकृष्णा गौ- कृषि विज्ञान अनुसंधान संस्थान, मुंगेली , छत्तीसगढ़ (भारत)
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